Wednesday, February 28, 2018

रजनी मोरवाल की “नमकसार” कहानी



सुप्रशिद्ध कथाकार रजनी मोरवाल की "नमकसार" कहानी 'परिकथा' के सितम्बर-अक्टूबर२०१७ के अंक में प्रकाशित हुई । ये कहानी गुजरात के कच्छ क्षेत्र में नमक के रेगिस्तान में काम करने वाले मजदूरों पर केन्द्रित है, दिन-रात नमक में रहने के कारण जिनके हाथ-पैर गल जाते हैं और किस तरह तमाम परेशानियों के बावजूद भी वे यही जीते-मरते हैं । यह एक मार्मिक कहानी है जिसे पाठकों ने अत्यंत सराहा |

Friday, February 23, 2018

कुछ तो बाकी है... कहानी संग्रह




                 "स्त्री विमर्श-एक नए फ़्लेवर में"
 
इस संग्रह की सभी कहानियाँ ख़ुद ब ख़ुद स्त्री विमर्श की बनती चली गईं, मैंने न तो ऐसा सोचा था न इसके लिए कोई विशेष प्रयास ही किया था । यह सभी क़िस्से किसी-न-किसी प्रेरणा अथवा अनुभव पर आधारित है । इन किस्सों को कहानी बनाने के लिए मैंने इनमें भावनात्मक सत्य को प्रकट करने की कोशिश की है । हर कहानी के भीतर उसकी मनोवैज्ञानिक पराकाष्ठा क्या होगी ? मनोवैज्ञानिक आधार क्या होगा ? इन प्रश्नों से बार-बार, हर कहानी से पहले मैं जूझती रही हूँ । हांलाकि इस प्रयास में कितनी हद तक मुझे सफलता प्राप्त हुई, यह मैं आप पर छोड़ती हूँ ।

      इन कहानियों के पात्र कहीं भी अपनी स्थिति से समझौता नहीं करते । रोते-कलपते नहीं हैंऔर न वे दयनीय हैं, बल्कि वे तो धारा के विरूद्ध जाकर अपनी जीजाविषा के लिए संघर्ष करते हुए जीवन में अपना एक मार्ग निर्धारित करते हैं । कहीं-कहीं पर ये पात्र "अपोर्चूनिस्ट" और स्वार्थी भी बनें हैं । एक कहानी "छत की आस" में पिता अपनी बेटियों की मौत पर कहता है "काश वे किसी के साथ भाग ही जातीं", एक अन्य कहानी "रिंग-अ-रिंग ओ' रोजेज" में उसकी पात्र भित्ती अपने परिवार को परेशानी व गरीबी से बचाने के लिए अपने कैंसर पीडित पति को अकेला छोड कर आ जाती है और परिवार वाले उसकी मौत की खबर को ही सच मानने लगते हैं । इसीलिए इन्हें "स्त्री विमर्श की कहानियाँ-एक नए फ़्लेवर में" कहना मुझे उचित लगा । कहन शैली में लिखी गई मेरी इन सभी कहानियों में कहीं पर भी मैंने अपने आप को "इंटेलेक्चुअल" सिद्ध करने के लिए ज़बरन शब्दों को ठूंसनें का प्रयास नहीं किया, न ही साहित्यिक ज्ञान बघारने की कोशिश करते हुए भारी-भरकम शब्दों का ज़बरदस्ती प्रयोग किया है । जब कभी प्राकृतिक रूप से विस्तार की संभावना लगी है तो मैंने उसका फ़ायदा भी लिया है । कहीं-कहीं पर स्वाभाविक तौर से कवितामय रंग उत्पन्न हुआ है तो कहानी के संदर्भ में ही सीमित रहते हुए वाक्यों में उसका प्रसार भी किया है । मैं "टू द पांइट" लिखने की पक्षधर हूँ किन्तु घटनाओं के बीच में रोचकता व ताजगी उत्पन्न करने के प्रयास में कुछ घुमाव तो यकीनन मैंने लिए हैं, अपनी स्मृतियों में अंकित कुछ बातें औरकुछ यादेंमैंने ज्यों कि त्यों भी लिखीं हैं मगर यहां किसी के मुखौटे खींचकर कहानियाँ लिखने का कार्य नहीं किया है । किसी के जीवन से प्रेरणा पाकर कलम जरूर चलाई है परन्तु सिर्फ "फ्लेवर"उठाने भर का सत्य लिया है ।तथ्यों पर पर रिसर्च करते हुए उस प्लॉट में अपनी बात कही है । बेहतर लिखने का प्रयत्न जारी रहेगा इसी उम्मीद के साथ ।
- रजनी मोरवाल

Thursday, February 22, 2018

रजनी मोरवाल का पहला कहानी संग्रह - कुछ तो बाकी है – एक अकेली औरत की दुनिया



रजनी मोरवाल का सामयिक प्रकाशन से छपा पहला कहानी संग्रह कुछ तो बाकी है मेरे सामने है। सभी कहानियां पढ़ लेने के बाद मेरे मन में जो पहला जुमला आया,वह ये था कि रजनी जी अभी बहुत कुछ बाकी है। आप आश्‍वस्‍त रहें।

बेशक इस संग्रह की 25 कहानियों के रचे जाने का काल काफी लंबा हो सकता है, शायद पच्‍चीस बरस भी लेकिन जो बात इस कहानी संग्रह में सबसे ज्‍यादा आश्‍वस्‍त करती है वह यह है कि रजनी जी पूरी शिद्दत के साथ अपना लेखकीय दायित्‍व निभाते हुए हमें एक ऐसे कथा संसार में ले जाती हैं जहां जीवन के लगभग सभी रंग अपनी पूरी विश्‍वसनीयता के साथ मौजूद हैं। लेखक के सामने सबसे बड़ी चुनौती होती है अपने वक्‍त को सही तरीके से परख कर, पहचान कर उसे अपनी रचनाओं में दर्ज करना। लेखक इसीलिए तो लिखता है। रजनी जी अपने इस मकसद में पूरी तरह से सफल रही हैं।

इस संग्रह में त्‍यौहार हैं, त्‍यौहारों के बदलते चेहरे हैं, उनसे उपजी सामाजिक विडंबनाएं हैं, औरत का अकेलापन है, उसके आधे अधूरे सपने हैं, पारिवारिक संबंधों की जटिलताएं हैं, शहरों में कॉलोनी लाइफ की बदलती परिभाषाएं हैं जहां बरसों तक परिचय नेम प्‍लेट पर दर्ज नाम को जानने से आगे नहीं बढ़ पाते, बेमेल विवाहों से उपजे पति पत्‍नी के संबंधों में बढ़ती दरारें हैं। कहीं प्रेम की आकांक्षा है तो कहीं किशोर वय के पहले प्रेम की नादान बेवकूफियां हैं। यानी इन पच्‍चीस कहानियों में हम एक बायोस्‍कोप की तरह एक औरत की जिंदगी के पच्‍चीस शेड्स देख लेते हैं।

संग्रह की सभी कहानियां महिला पात्र को ले कर लिखी गयी हैं। अधिकतर कहानियां मैं को ले कर लिखी गयी हैं। यानी कथा नायिका स्‍वयं कहानी के केन्‍द्र में है। कहीं अध्‍यापिका के रूप में तो कहीं कामकाजी महिला के रूप में तो कहीं लेखिका के रूप में। इस लिहाज से कहानियां ज्‍यादा विश्‍वसनीय बन पड़ी हैं।

यहां मैं एक व्‍यक्‍तिगत अनुभव शेयर करना चाहूंगा। पिछले चार पाँच बरसों में लिखी गयी मेरी सात आठ कहानियां फेसबुक से मिले पात्रों पर लिखी गयी हैं। निश्‍चित ही इन कहानियों में मेरे व्‍यक्‍तिगत अनुभव भी छन कर आये ही होंगे। दो एक कहानियों में मैं स्‍वयं  लेखक के रूप में मौजूद हूं। इन कहानियों को पढ़ कर मुझ पर आरोप लगाया गया कि  आत्‍मकथात्‍मक कहानियां हैं। इनमें लेखक ने न केवल खुद को परोसा है बल्‍कि अपनी कहानियों के नाम भी जस के तस दे दिये हैं।

इसके जवाब में मेरा ये कहना था कि अपने रचे सभी पात्रों में हम कहीं न कहीं मौजूद रहते हैं। इस मौजूदगी का प्रतिशत निकालना बेमानी होता है। ये पात्र चूंकि हमारी ही सोच की, कल्‍पना की और सृजनात्‍मकता की मांस मज्‍जा ले कर रचे जाते हैं तो वे एक तरह से हमारे ही अंश होते हैं। और फिर जब आत्‍मकथात्‍मक उपन्‍यास हो सकते हैं तो आत्‍कथात्‍मक  कहानियां क्‍यों नहीं।

रजनी जी को इस फ्रंट पर पूरे अंक दिये जाने चाहिये कि वे लगभग सभी कहानियों में स्‍त्री की तकलीफों की ही बात करती हैं। उसके सुख दुःख की, आधे अधूरे सपनों की, दिन प्रतिदिन होम फ्रंट पर लड़ी जाने वाली लड़ाइयों की और छोटी मोटी महत्‍वाकांक्षाओं की बात करती हैं। जैसाकि उन्‍होंने खुद की स्‍वीकार किया है कि उनकी नायिकाएं वीरांगनाएं नहीं हैं।हर गली मोहल्‍ले में रहने वाली, दिन में दस बार नज़र आने वाली आम औरतें हैं  जिनके हिस्‍से  में हर तरह की तकलीफें आती ही हैं।

मजे की बात रजनी जी की कहानियों में अकेली औरत ज्‍यादा आती है जो पाठक से बतियाती है। अपने जीवन की, अपने सपनों की और अपनी उम्‍मीदों की बात करती है। बेशक अपनी समस्‍याओं के हल वह खुद ही सुझाती है। ये एक शुभ लक्षण है।

दरअसल आज के वक्‍त की तेज गति के बदलाव को थाम पाना और अपनी रचना का विषय बनाना हीलेखक के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। इस वक्‍त एक साथ कई पीढ़ियांहमारे सामने न केवल भरपूर और एक दूजे से अलग जीवन जी रही हैं बल्‍कि एक दूसरे पर असर भी डाल रही हैं। कभी माना जाता था कि पीढ़ियां पच्‍चीस बरस बाद बदलती हैं जहां मूल्‍य आपस में टकराते थे। आज तो ये हाल है कि मोबाइल का मॉडल बदलने की तरह पीढ़ियां बदल रही हैं और हमारे सामने कई पीढ़ियां आपस में कंधे रगड़ कर अपने पक्ष को सही ठहराने और दूसरे पक्ष को एक सिरे से नकार देने में भिड़ रही हैं।

यही भिड़ंत हर पीढ़ी के लेखक के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। वह इसे अपनी रचना का विषय कैसे बनाये। जब तक वह इसके एक पक्ष को समझने की कोशिश करता है, उसके दिमाग के पुर्जे ढीले कर देने के लिए कोई औरविस्‍फोट हो चुका होता है और वह अपने को हताश निराश महसूस करता है। लेखक के सामने सबसे बड़ी तकलीफ उसके लेखन के अप्रासंगिक हो जाने की  होती है।

ऐसे में लेखकजब एक तनी हुई रस्‍सी पर चलने की तरह दम साध कर हमें एक अपने आस पास के जीवन की विश्‍वसनीय कहानियां ले कर आता है तो सुखद लगता है। रजनी जी ने अपनेपहले कहानी संग्रह में यही तरीका अपनाया है और काफी हद तक इसमें सफल भी रही हैं।

रजनी जी एक संवेदनशील कवयित्री हैं। यहां भी उनका कवि रूप ही पन्‍ने पन्‍ने पर बिखरा है और कई जगह मुझे लगा कि ये तो कविता की पंक्‍तियां हैं, यहां कहानी में क्‍या कर रही हैं।

कहानी संग्रह की सभी 25 कहानियां स्‍मृतियों के खजाने से उकेरी गयी जीवन की अलग अलग तरह की पेंटिंग्‍स हैं। इन कहानियों के पात्र उनके जीवन से ही आये हैं और उन्‍हें उद्वेलित करते रहे हैं। कथाकार के सामने सबसे बड़ा संकट यही होता है कि जब तब बेचैन कर देने वले इन सारे प्रसंगों को कागज पर न उतार ले, उसे मुक्‍ति नहीं मिलती। रजनी जी की ये कहानियां उसी मुक्‍ति का प्रयास हैं।

मैं कह ही चुका हूं कि रजनी जी की सभी कहानियां महिला पात्रों को ले कर ही लिखी गयी हैं,अपने आस पास के जीवन से उठाये गये होते हैं। वे आश्‍चर्य जनक रूप से हमारी अपनी ही जिंदगी का हिस्‍सा लगते हैं और हमें सहसा लगने लगता है कि अरे, हम खुद इस या हू ब हू इस जैसे व्‍यक्‍ति से खुद मिल चुके हैं और बात भी कर चुके हैं। जिस किस्‍सागोई की सुपरिचित स्‍टाइल मेंरजनी जी अपने पहले संग्रह की  कहानियां ले कर आयी हैं, यह बात उनकी कहानियों को और विश्‍वसनीय बनाती हैं और हम खुद को ठगा हुआ महसूस नहीं करते। वैसे तो कहा यही जाता है कि जीवन कहानी जैसा नहीं होता और कहानी जीवन जैसी नहीं होती लेकिन फिर भी हमें अच्‍छा लगता है जब कोई लेखिका कोई बड़े दावे किये बगैर अपनी कहानियों में रोजमर्रा के जीवन के उजले धुंधले पक्ष ले कर हाजिर होती है और ईमानदारी से और मुस्‍कुराते हुए हमसे शेयर करती है कि भई जो भी मैंने अपने लम्‍बे जीवन में देखा, महसूस किया है और जिससे मैं डिस्‍टर्ब हुई हूं, कहानियों के रूप में आपके सामने पेश है। अब इनमें कितनी कहानियां बन पायी हैं या कहानियां बनते बनते रह गयी हैं, पाठक के रूप में आप ही तय करें। वह मुस्‍कुराते हुए यह भी कहती है कि आप विश्‍वास करें या न करें लेकिन जिस जीवन से ये कहानियां उठायी गयी हैं, वह ऐसा या लगभग ऐसा ही था। मैंने तो बस...। वे चाह कर भी अपने पात्रों से जादूगरी या बाजीगरी नहीं कराती। करानी भी नहीं चाहिये। इससे जीवन के प्रति और जीवन में बनने वाले संबंधों के प्रति हमारी आस्‍था मज़बूत होती है। पाठक खुद को कहानी के पात्रों के करीब पाता है। यही सच्‍चा लेखकीय धर्म होता है।

कुल मिला कर संग्रह की सारी कहानियां हमें लेखक के एक ऐसे रचना संसार से रू ब रू कराती हैं, जहां टुच्‍चे स्‍वार्थ हैं, छोटी छोटी खुशियां हैं, मासूमियत है, रिश्‍तों की गरमाहट और उनका ठंडापन है, और जीवन के हर शेड के रंग हैं। कुछ मनभावन और कुछ आंखों को चुभने वाले भी। लेकिन ज्‍यादातर कहानियां डिस्‍टर्ब करती हैं। कम्‍बख्‍त जीवन भी तो ऐसा ही होता है।

रजनी जी को अभी बहुत लिखना है।

सूरज प्रकाश